भारतीय राज्यव्यवस्था को समझने से पहले यह आवश्यक है कि हम राज्य की अवधारणा को समझें । क्योंकि राज्य की व्यवस्था से जुड़ी प्राथमिक अवधारणा राज्य (state) है ।
राज्य क्या है ?
राज्य शब्द का प्रयोग वैसे तो विभिन्न प्रान्तों (provinces ) को सूचित करने के लिए भी किया जाता है जैसे हिमाचल प्रदेश , हरियाणा, बिहार , तमिलनाडु इत्यादि । लेकिन राजनीतिक शास्त्र या राज्यव्यवस्था में इसका वास्तविक अर्थ किसी प्रान्त से न होकर किसी समाज की राजनीतिक सरंचना (Political Structure) से होता है वास्तव में राज्य एक अमूर्त (Abstract) अवधारणा है अर्थात इसे अध्ययन के स्तर पर समझा तो जा सकता है किंतु देखा नहीं जा सकता । उदाहरणतः भारत सरकार , संसद , न्यायपालिका , राज्य की विधायिकाएं तथा नौकरशाही इत्यादि की समग्र सरंचना को ही राज्य कहते है।
एक स्वतंत्र तथा सम्प्रभु राज्य किसी समाज के विकसित व सक्षम होने की पहचान भी है तथा विकास की पहली शर्त भी । एक स्थिर राजनीतिक प्रणाली वाले देश विकास की नित नई गाथाएं लिखते है जैसे अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया , वहीं अस्थिर राजनीतिक प्रणाली वाले देशों में विकास अवरुद्ध हो जाता है । अफगानिस्तान इसका उत्तम उदाहरण है ।
राज्य के तत्व
आप राज्य की अवधारणा को समझ चुके होंगे , प्रश्न ये है कि राज्य किसे माना जाएं या किसी भू- भाग को राज्य के रूप में प्रतिस्थापित होने के लिए क्या अहर्ताएं है –
राज्य में चार तत्व अनिवार्य रूप से विद्यमान होने चाहिए :-
- भू – भाग ( Geographical Area ) – अर्थात एक ऐसा निश्चित भौगोलिक प्रदेश होना चाहिए जिसमें उस देश की सरकार शासनिक क्रियाएं करती हो , जैसे कि भारत का सम्पूर्ण क्षेत्रफल भारत राज्य का भू-भाग है ।
- जनसंख्या (Population ) – राज्य के दूसरी अनिवार्यता है कि उपरोक्त वर्णित भू- भाग में रहने वाला एक जन समुदाय हो जो सम्बंधित देश की राजनीतिक व्यवस्था के तहत संचालित हो ।
- सरकार (Goverment) – सरकार से तातपर्य एक या अधिक व्यक्तियों के उस समूह से है जो व्यवहारिक स्तर पर राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करतें हो । राज्य एक अमूर्त (Abstract) अवधारणा है लेकिन सरकार उसी अमूर्त अवधारणा को मूर्त (Concrete) या व्यवहारिक रूप प्रदान करती है ।
- सम्प्रभुता ( Sovereignty ) – राज्य होने की यह अनिवार्य शर्त है इसका अर्थ है कि सरकार के पास अपने भू-भाग तथा उसके अंदर रहने वाले जनसमुदाय के संदर्भ में निर्णय लेने की स्वन्त्रता होने चाहिए । दूसरे शब्दों में कोई बाहरी राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ।
राज्य के ये चारों तत्व अनिवार्य है न कि वैकल्पिक । यदि इनमें से एक भी तत्व अनुपस्थित हो तो राज्य की अवधारणा निरर्थक हो जाती है ।
राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता –
बढ़ते औद्योगिकीरण के इस दौर पर जब अंतराष्ट्रीय स्तर पर विश्व में देशों के परस्पर सम्भावित टकराव के बहुत से उदाहरण है ,ऐसे में राजनीतिक व्यवस्था की अहमियत और भी बढ़ जाती है । क्योंकि किसी बाह्य आक्रमण के समय एक ऐसी केंद्रीयकृत सरकार होना जरूरी है जो सही निर्णय ले सके तथा अपने देश के भू-भाग की सीमाओं को तथा उसके अंदर रहने वाले लोगों को सुरक्षित रख सके ।
भारत के संदर्भ में राजनीतिक प्रणाली का जहां तक प्रश्न है तो एक सक्षम राजनीतिक प्रणाली को हर स्तर पर महसूस किया जा सकता है जिनका वर्णन निम्न प्रकार से दिया गया है –
- भारत अभी विकसित अर्थव्यवस्था की दौड़ में शामिल है 15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता के पश्चात भारत ने विकास के नए आयाम स्थापित किये है तथा एक पिछड़ी अर्थव्यवस्था से विकासशील तथा अंततः विकसित अर्थव्यवस्था की राह पर है अतः भारत में राष्ट्र निर्माण की इस प्रक्रिया में देश को बाह्य तथा आंतरिक राष्ट्र विरोधी ताकतें नुकसान पहुंचा सकती है । अतः ऐसे खतरों से पार पाने के लिए भारत में सशक्त राजनीतिक प्रणाली का होना अति आवश्यक है ।
- भारत को अपनी आंतरिक चुनौतियों जैसे नक्सलवाद , आंतकवाद तथा अलगाववाद से निपटने के लिए एक मजबूत राजनीतिक ढाँचे की जरूरत है ।
- भारत एक कल्याणकारी राज्य के रूप में अपनी पहचान रखता है अतः इसकी सीमाओं के भीतर रहने वाले जन समुदाय के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं को वांछित वर्गों तक पहुंचाने के लिए एक सुगठित राजनितिक ढांचे की जरूरत है ।
- उभरते सामाजिक परिवर्तनों के कारण कभी-कभी वंचित वर्ग (Deprived Classes) तथा अन्य तबकों के बीच तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जैसे जाट आरक्षण आंदोलन इत्यादि इन सभी का समाधान करने के लिए एक सशक्त राजनीतिक ढाँचा आवश्यक है I
- हम एक ऐसे समाज में रहते है जहाँ लोगों में अपने हितों के टकराव को लेकर कई बार अराजकता की स्थिति बन जाती है ऐसी स्थिति में एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जो अराजकता को रोकें तथा उनके विवादों का समाधान करने के लिए उन्हें न्यायपालिका के समक्ष पेश करें ।
क्रमशः……
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